तुम प्रश्न पूछते हो? कि धार्मिक कैसे बनेंगे?
बनने की कोशिश भी करते हो लेकिन बनते नहीं!
क्योंकि तुमने धर्म को समझा ही कुछ और है?
तुमने धर्म के नाम पर पुस्तकें पकड़ ली। पुस्तकों में अटक गए। जीवन से कुछ भी नहीं सीखा हमेशा से ही ऊपर ऊपर से बदलने की चेष्टा की। पहले संसार में ऊपर ऊपर से बदलने का दिखावा करते थे। अब संयास में और धर्म के लिए भी ऊपर ऊपर से बदलने का दिखावा करते हो। सोचो जब तुम घर में होते हो तो कैसा उपद्रव रहता है? और वही जब तुम सज धज कर किसी शादी में जाते हो तो कितना खुश दिखने की चेष्टा करते हो। चाहे सभी को पता है कि तुम्हारे सामने वाला भी दिखावा ही कर रहा है। लेकिन फिर भी दिखावा तो करते हो। भीतर से तुम उपद्रवी ही रहते हो।
उसी प्रकार धार्मिक चिन्ह ओढ़कर धार्मिक वस्त्र पहन कर, तुम त्याग का , शांति का , आनंद का दिखावा करते हो? और कुछ भी तो नहीं? सोचो अगर एक बार एक व्यक्ति शांति को उपलब्ध हो गया, त्याग को उपलब्ध हो गया तो वह दोबारा क्यों त्याग का दिखावा करेगा। वह बार-बार क्यों शांति प्राप्ति के उपाय करेगा?
इसीलिए ही तुम लोगों को रोज-रोज सुनाते हो कि 4 नियमों का पालन करो और मैं कहता हूं छोड़ो सारी बातें छोड़ो 4 नियमो को भी छोड़ो बस आंखें खोल लो। तुम बस जाग जाओ। तुम बस मन से साधु हो जाओ। कपड़ों वाले साधु नहीं , तिलक छाप साधु नहीं, धार्मिक कपड़ों वाले साधु नहीं।
तुम्हारा हृदय साधु हो जाए, फिर जो भी होगा वह पुण्य ही होगा। वहां धर्म ही होगा और जिस दिन तुम जाग जाओगे उस दिन वंहा जो भी होगा, वह परमात्मा ही होगा। मैंने पहले भी तुम्हें समझाया था कि तुम जो भी करोगे वह पाप ही होगा। तुम तुम हो कर कभी भी पुण्य नहीं कर पाओगे। तुम बस भीतर से हट जाओ। फिर जो भी होगा वह पुण्य होगा। और वो! परमात्मा को स्वीकार होगा।
तुम बाहर से नहीं भीतर से साधु होने की सोचो। कपड़े रंगने की मत सोचो। एक बार अगर तुम जाग गए। जब एक बार तुम्हारे ही भीतर परमात्मा बरसा तो वह फूट-फूटकर बहेगा । फिर वह झरना ऐसा बहेगा कि रोके न रुकेगा । फिर उस गंगा के साथ जो जल बहेगा वह तुम्हारे। सारे राग द्वेष को बहा ले जाएगा। वहां जो प्रेम बहेगा , वह तुम्हारे साथ साथ पूरी सृष्टि को बहा ले जाएगा।
तुम फिर जो भी करोगे वह स्वतः ही पुण्य होगा। वह स्वत ही धर्म होगा। लेकिन तुम्हें यह तभी समझ आएगा। जब तुम जीवन के सिद्धांत जीवन की किताब से सीखोगे। वेदों से शास्त्रों से पुरान से कुरान से नहीं।
मैं तुम्हें पुस्तकों का धर्म नहीं सिखाता हूं। यह तो तुम भी जानते हो, क्योंकि पुस्तकों में धर्म होता। तो तुम्हें कब का मिल गया होता? पुस्तकों का धर्म तो तुम मुझसे कहीं ज्यादा जानते हो, तुम्हारे पंडित पुरोहित जानते हैं। लेकिन वह पुस्तकों का धर्म तुम्हें आज तक सुखी नहीं कर पाया। मुक्त नहीं कर पाया, आनंदित नहीं कर पाया।
मैं तुम्हें जीवन के सिद्धांत से धर्म खोजने की प्रेरणा देता हूं। मैं तुम्हें तुम्हारा जीवन दिखाता हूं और अगर एक बार तुमने अपना जीवन खोज लिया तो तुम स्वयं को भी देख लोगे और परमात्मा को भी देख लोगे। जिन्होंने भी परमात्मा को पाया है जिन्होंने भी बुद्धत्व को पाया है। उन्होंने उसे जीवन के सिद्धांतों में खोज कर पाया है। किसी ने भी कभी ने भी उस परमात्मा को तुम्हारे वेद पुराणों से नहीं पाया है।
मैं तुम्हें जीवंत धर्म देता हूं। मैं तुम्हें आज का वैज्ञानिक धर्म देता हूं। इसलिए ही जिन बुद्धो ने भी उसे पाया है, उन्होंने एक ही स्वर में कहा है कि कोई रूप नहीं है उसका। कोई नाम नहीं है उसका।
फिर चाहे बुद्ध को पढ़ लो या महावीर को।
समय-समय पर इस धरा पर पैगंबर ,तीर्थंकर ,बुद्ध आते ही रहे हैं। लेकिन दुर्भाग्य है यह तुम्हारा कि तुम उन्हें पहचानते नहीं। क्योंकि वह हर बात नया ही रूप लेकर आते हैं और तुम पुरानी धारणा में बंध कर उन्हें खोजते हो और दुखी होते रहते हो।
बुद्ध ने जीवन में उसे खोजा है। वह जीवन में ही मिलता है। तभी सभी बुद्ध कहते हैं कि अहम् ब्रह्मास्मि। यानी वंहा एक है या वंही एक है। और वही परमात्मा है क्योंकि वह दूसरा कुछ भी नहीं है। लेकिन तुम्हारा धर्म कहता है, दो है द्वैत एक तुम हो दुखालयम दुःख के घर में रहने वाले दुख स्वरूप और दूसरा स्वर्ग परमात्मा का घर सुख स्वरुप।
सभी अपनी अपनी बुद्धि अनुसार भिन्ह भिन्ह इस्थिति बना लेते है। जैसे ज्ञान ज्ञाता और ज्ञये
लकिन बुद्धतत्व की स्थिति में तो केवल एक ही रहता है बस और जैसे ही बुद्धतत्व घटता है तो तुम पते हो कि वंहा एक ही है। चाहे उसे जीवन को ,चाहे आत्मा , चाहे परमात्मा ,चाहे ईश्वर या कुछ भी।
दूसरा कोई है ही नहीं। जब दूसरा है ही नहीं तो दौड़ कैसी?
इसीलिए देखना बुद्धों की दौड़ हमेशा हमेशा के लिए समाप्त हो जाती है और यह कसौटी है कि बुद्धातत्व घटा या नहीं।
तुम स्वयं के मालिक बने या नहीं? स्वयं को पहचाना या नहीं। स्वयं के भीतर से उद्घोष हुआ या नहीं।
जिस दिन तुम जागोगे, आंखें खुलेगी तो सबसे पहले तुम स्वयं पर हसोगे कि बुद्ध ने बार-बार समझाया, लेकिन मैं मूड रट्टा ही रहा अपनी पुरानी धारणा।
बुद्ध कहते हैं। उद्घोष होना चाहिए। अहम् ब्रह्मास्मि। परमात्मा कहते हैं मैं परमात्मा। और तुम रटे जा रहे हो। पापोहम पापकर्माहम।
मूर्खता की भी हद होती है तो तुम हंसोगे कि परमात्मा हर बार समझाते थे, लेकिन हम इतने वर्ष नहीं समझे। हम ही अपने ऊपर कर्मो का बोझ ढोये हुए थे।
तुम सोचते हो गरीब ही बोझ ढोता है नहीं। तुम्हारे अमीर भी बोझ ढोते हैं लकिन सिर पर नहीं पेट मे। और गरीब और अमीर के साथ तुम्हारे धार्मिक भी बोझ उठाते हैं और उनके ऊपर जो बोझ है , वह सबसे खतरनाक है जो ना तो दिखता है और ना ही उन्हें उतारना ही आता है। उनके पास ऐसी कोई विधि नहीं है कि वो उस बोझ को उत्तर पाए और बोझ है कर्मों का बोझ।
उस बोझ को वो पूरा जीवन उतारने के उपाय करते हैं, लेकिन फिर भी उतार नहीं पाते।
बुद्ध जब भी आते हैं तो तुम बुद्धों को धोखा देते हो। आज तक कितने बुद्धों को धोखा दिया तुमने ।
कृष्ण को दिया ,बुद्ध को दिया ,महावीर को दिया ,मोहम्मद ,जीसस, नानक ,कबीर को धोखा दिया, और तुमने सभी की आंखों में धूल झॉकी।
वह चले गए और तुम बचे रहे। तुम कोई आज जन्मे हो नहीं। ऐसा नहीं। तो बहुत पुराने हो, बुद्ध आता तो है तुम्हारे ही साथ। तुम्हारे ही जैसा लेकिन वो अपनी आंखों की पट्टी खोल देता है। ज्ञान की जो गंगा भीतर बहती रहती है, वह उसमें डूब कर मर जाता है और मुक्त हो जाता है और बुद्धत्व को प्राप्त हो जाता है। लेकिन तुम मरते ही नहीं बचे बचे रहते हो।
तुम धर्म को परमात्मा को किताबों को देखकर ही पढ़कर ही संतुष्ट हो जाते हो। तुम डूबते ही नहीं बुद्धों की गंगा तुम्हारे सामने से ही बहती है। लेकिन तुम डूबते ही नहीं। तुम परमात्मा की बातों से ही संतुष्ट हो जाते हो। परमात्मा की बात करके पाओगे भी क्या परमात्मा मिल भी जाए तो भी पाओगे। क्या परमात्मा का जप करते हो, आरतियां प्रार्थनाएं करते हो भिखारी बनने के लिए। मांगते ही तो हो तुम कुछ न कुछ अपने अपने धर्म स्थलों में जाकर।
मांगने के लिए परमात्मा की बात करने से कोई लाभ नहीं। परमात्मा मिल भी जाए तो कोई लाभ नहीं। अगर लाभ है तो परमात्मा होने में है। अगर लाभ है तो केवल इसमें कि तुम उसी रंग में रंग जाओ। अगर लाभ है तो इसमें कि तुम में और उसमें कोई भेद ना हो।
कागज के परमात्मा से क्या लाभ , शास्त्रों में लिखे परमात्मा से क्या लाभ , शास्त्र पढ़कर तुम पंडित हो जाते हो। लेकिन लाभ क्या। बल्कि पंडित के लिए एक नई मुसीबत हो गई। उसने मान लिया कि वह जाना हुआ है और वह जाना हुआ ही उसके मिटने में अड़चन है
जो संसारी अज्ञानी है वह मानता है कि उसे कुछ नहीं पता। उसका मिटना हो सकता है। लेकिन जो पंडित का मिटना तो कभी हो ही नहीं सकता है।
बुद्ध सामने हो तो मिटने का सही समय है उस बुद्ध की गंगा में डूब मरो। लेकिन तुम तो बुद्धों की आंखों में धूल झोंक ते हो और आने वाले भविष्य में भी तुम यही करते रहोगे। पहले अनेक बुद्ध समझा गए। आज मैं समझा रहा हूं। वह भी आकर चले गए। मैं भी चले जाऊंगा। तुम बस बने रहोगे वैसे के वैसे।
तुम बातें तो करते हो, ईश्वर है, परमात्मा है। ध्यान से देखना आधी दुनिया मानती है, ईश्वर है और आधी दुनिया मानती है, ईश्वर नहीं है लेकिन पूरी दुनिया तो एक से दिखती है सभी के कृत्यों में कुछ भी तो भेद नहीं है।
साधारणतया जो ईश्वर को ज्यादा नहीं मानते कुछ ज्यादा सरल होते हैं, विनम्र होते हैं। लेकिन जो मानते हैं, कि वह धार्मिक हैं , जो मानते हैं कि ईश्वर है, जो मानते हैं वह जानते और जो मानते हैं कि ईश्वर है वह ज्यादा अभिमानी ज्यादा उलझे हुए होते हैं। उन्हें इस जीवन की भी चिंता होती है और उन्हें परलोक कि भी चिंता होती है।
धर्म को कैसे जाने ? सन्यास को कैसे जाने ? धर्म क्या है? जब तक आंखें नहीं खोलोगे जब तक नहीं जान पाओगे। आंखें खोलो, उठो, खड़े हो, स्वयं जान जाओगे।
जो भी बच्चा चलना सीखता है। स्वयं सीख जाता है। वो पिता कि अंगुली पकड़ता है। दो-चार 10 दिन। उसके बाद उसे उंगली की जरूरत नहीं होती है। वो उस ऊँगली को अपने आप छिटक भी देता है। जो अकल्मन्द बुद्ध होगा , जो गुरु होगा , वह तुम्हारी 2 मिनट के लिए उंगली पकड़ेगा। बाद में छिटक देगा। चलना तो तुम्हें ही पड़ेगा। तैरना सीखने वाला क्या करता है ? केवल किनारे खड़ा हुआ पानी में धक्का ही तो मारता है। हाथ पैर तो तुम्हें ही मारने पड़ते है ना।
चलना तो तुम्हे ही पड़ेगा जागना तो तुम्हे ही पड़ेगा। वरना पूरा जीवन मूड बने रहना और उन लोगों के पास जाना है जो कहते हैं, हम भगवान से विनती करेंगे। तुम्हें बैकुंठ मिले स्वर्ग मिले। वो तो सभी मूड बनाते आ रहे हैं और भविष्य में भी बनाते रहेंगे। उनका तो ये व्यापार है वो तो ऐसा ही करेंगे।
आज इतना ही शेष किसी और दिन अंत में तुम्हारे भीतर बैठे परमात्मा को मेरा नमन तुम सभी जागो जागते रहो।