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What is god : क्या तुम भी चाहते हो बंधनों से मुक्ति? आखिर किस चीज से, परमात्मा बता रहे हैं सही मार्ग

What is god: फिर किसी ने पूछा कहा परमात्मा तुम्हारा मार्ग कौन सा है ? पंथ कौन सा है.. कौन सा शास्त्र…तुम्हारे रास्ते की गवाही दे रहा है कि तुम सही रास्ते पर जा रहे हो. हिंदू का.. मुस्लिम का.. सिख का.. ईसाई का.. बौद्ध का जैन का…किस धर्म का… किस शास्त्र का… मार्ग तुमने अपनाया है. उसके बारे में बताओ. तुम हमें कहां लेकर जा रहे हो. किस पथ की ओर…किस मार्ग की ओर…उसके बारे में बताओ. शंका हो गयी तुम्हें कि मैं तुम्हें कहां लेकर जा रहा हूं. लेकिन अच्छा है तुम्हें शंका हुई. मेरे ऊपर शंका होते होते तुम्हें एक दिन ये भी शंका होने लगेगी कि जिस मार्ग पर तुम सभी चल रहे हो. जन्म से आजतक और कई जन्मों से…पिछले करीब 55 सौ वर्षों से…उसपर भी शंका होगी कि क्या तुम सही चल रहे हो. अच्छा है शंका होना. मेरे ऊपर भी और अपने मार्ग पर भी…क्या सही चल रहे हो.

मुक्ति यानी सभी प्रकार के बंधनों से मुक्ति (What is god)…

मै तुम्हें किस मार्ग पर लेकर जा रहा हूं? मै धीरे-धीरे तुम्हें मुक्ति के मार्ग पर लेकर जा रहा हूं. मुक्ति यानी सभी प्रकार के बंधनों से मुक्ति…हिंदू होने से मुक्ति…मुस्लिम होने से मुक्ति…सिख, ईसाई, जैन सभी प्रकार के बंधनों से मुक्ति और मुक्ति की ही तो कामना तुम रखे हुए हो. मोक्ष की चाह…मुक्ति की चाह…बुद्धत्व की चाह…निर्वाण की चाह (What is god)…यही तो सभी कामना रखे हुए हैं. सत्यलोक… ब्रह्म लोक..बैकुंठ लोक…गोलोक…वृंदावन…स्वर्ग…जन्नत…कौन से लोक हैं ये…जहां कोई चाह नहीं रहती है. जहां कोई दुख नहीं रहता है. दुख होता किस बात का है. अगर तुम स्वंय पर अनुभव करो. स्वंय को देखो. जहां तुम्हारी चाह गिरती है. वहीं दुख समाप्त हो जाते हैं. ये वही मार्ग है. ये वहीं रास्ता है जिसे कृष्ण ने प्रज्ञावान कहा है. प्रज्ञा प्राप्त स्थिति को प्राप्त मनुष्य…कृष्ण का वचन जिसे सिद्धार्थ ने बुद्धत्व कहा है. जिसे महावीर ने निर्माण: अवस्था कहा है. जिसे शंकर ने समाधिस्त हो जाना कहा है.

आखिर तुम हो कौन (What is god)?

संन्यास…मैं तुम्हें उसी मार्ग पर लेकर जा रहा हूं. धीरे-धीरे एक-एक कदम…तुम्हारे ही शास्त्रों के वचन हैं ना…स्वयं से पूछो नेति नेति…क्या मैं शरीर हूं. क्या मैं हाथ हूं. क्या मैं पैर हूं. क्या मैं सिर हूं. नहीं…नही…तो मै कौन हूं. क्या मैं हिंदू हूं… अटक गये यहीं तुमलोग. क्या मैं मुसलमान हूं. क्या मैं सिख हूं. क्या मैं ईसाई हूं. आखिर मैं हूं कौन ? वो जो है कि मैं कौन हूं. सब को छोड़ते जाओगे तो भान जाकर कहीं होगा. ये भी मत सोचना कि तुम्हें उत्तर मिलेगा कि मैं कौन हूं. प्रश्न भी खो जाएगा. पूछने वाला भी खो जाएगा. सबकुठ विलीन हो जाएगा. उसी एक में जिस एक को हिंदू ईश्वर कहता है. भगवान कहता है जो कहता है कि कण-कण में रसा बसा है. जिसको मुसलमान खुदा कहता है जिसके बारे में बोलता है कि वो जर्रे-जर्रे में रचा बसा है. जर्रे-जर्रे को गुंजायमान कर रहा है. मैं तुम्हें उस पथ कि ओर ले जा रहा हूं और जिस दिन तुम्हें भी बोध होगा स्वंय का…ये ध्यान रखना…ये मत सोचना कि कोई लालच है. तुम्हें कुछ लाभ मिलेगा. नहीं कोई लाभ नहीं मिलेगा. बल्कि तुम्हारा जीना इस दुनिया में मुश्किल हो जाएगा. आखिर बुद्धों का हुआ ही ना.

क्या आप भी मृत्यु से भयभीत हैं

ध्यान से देखो..जब कृष्ण थे. तो क्या उस वक्त गीता बंटती थी. या यूं कहें कि बेचता था. क्या कोई सड़कों पर कृष्ण गीता बेचता था. क्या बुद्ध के समय पर धर्मपद व्यवहार में था. क्या नानक के समय में ग्रंथ था. ये सब तो इनके वचन थे. इनके बाद इनका प्रकाशन हुआ. जब बुद्ध पुरुष होते हैं तो संसारिक लोग उनका जीना मुश्किल कर ही देते हैं. वो मुश्किल तुम्हारे साथ भी आएगी. हां…वो जीता है फिर भी…बुद्ध पुरुष तो जीते हैं…लेकिन अब वो पहले वाला व्यक्ति नहीं है. जिसे सत्य का भान नहीं था. जो निद्रा में था. जो मृत्यु से भयभीत था. जो नींद में सोया-सोया चल रहा था. जो हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन की धारणाओं से ग्रसित था. वो तो दूसरा व्यक्ति था जो कब का जा चुका है लेकिन अब वह व्यक्ति जाग गया है. ध्यान रखना जागने के बाद सबसे ज्यादा सोम तुम्हें अपने पर होगा. वो स्वंय को तुम्हें कहना पड़ेगा हाय…इतने वर्षों तक मैं अपने ही बनाये बंधनों में जकड़ा रहा स्वंय को…सारे के सारे बंधनों का कारण मैं ही था. ध्यान से देखना हर कोई बुद्धत्व प्राप्त करना चाहता है. हर काई प्रज्ञावान बनना चाहता है. बौद्ध निर्वाण की अवस्था जाते हैं. जैन निर्माण: की अवस्था चाहते हैं. हिंदू बैकुंठ चाहता है. स्वर्ग चाहता है…. मुसलमान जन्नत चाहता है (What is god). लेकिन इन सारी अवस्थाओं के पीछे कारण एक ही है. ये आते ही तब हैं जब तुम जागते हो. जब तुम उन पुराने घेरों को तोड़ देते हो. तुम खूंटी बांधकर रहना चाहना हो धरती पर और उड़ना चाहते हो आकाश में…क्या ये संभव है.

मृत्यु का द्वार तुम्हारी देह की मृत्यु नहीं, तो जानें किस चीज की मृत्यु

सारे बंधनों के कारण तुम हो. सत्य बोध की प्राप्ति तभी होती है. जब मनुष्य इन सारे बंधनों को तोड़ ऊपर उठता है. या ये कहो कि मृत्यु के द्वार को पार कर जाता है. मृत्यु का द्वार तुम्हारी देह की मृत्यु नहीं…बल्कि ‘मैं’ की मृत्य. कौन सा ‘मैं’…’मैं’ हिंदू…’मैं’ मुसलमान…’मैं’ सिख…’मैं’ ईसाई…’मैं’ बौद्ध…’मैं’ जैन…’मैं’ अक्लवाला…’मैं’ पद प्रतिष्ठा वाला…’मैं’ धन दौलत वाला..’मैं’ ज्ञानी..’मैं’ सिद्ध…’मैं’ परमात्मा (what is god)…इस ‘मैं’ की मृत्यु…जब कोई मृत्यु को पार कर जाता है. तब उसे जीवन के द्वार मिलते हैं. कैसा द्वार..वहां कोई दरवाजा नहीं होता. द्वार का अर्थ है नया मार्ग…नया रास्ता…और जिसने मृत्यु को पार कर लिया उसके लिए कैसा जीवन और कैसी मृत्यु…दोनों ही एक ही द्वार की दो सड‍़कें हैं. तुमने अपने ही राज्य में किसी स्टेट का बॉर्डर पार किया होगा. जैसे दिल्ली से यूपी जाते हैं. तो जो नये स्टेट का बॉर्डर आता है उसपर लिखा होता है…उत्तर प्रदेश में आपका स्वागत है. यदि ठीक उसके पीछे देखो तो लिखा होता है कि पुन: आगमन प्रार्थनीय है. यानी यहां पर उत्तर प्रदेश की सीमा समाप्त होती है. पीछे से देखों तो लेकिन आगे से देखों तो वो आरंभ होती है. एक ही सीमा पर या एक ही रेखा पर..एक ओर दिल्ली है तो एक ओर उत्तर प्रदेश…ऐसे ही जब बुद्धत्व प्राप्त होता है जब प्रज्ञा का उदय होता है. तो तुम पाते हो कि एक ही रेखा पर इधर संसार है तो उधर परमात्मा है. इधर वो व्यक्ति है जिसने कभी आंख नहीं खोली जो जकड़ा रहा स्वंय को इन्हीं बंधनों में और एक क्षण के बाद उधर वो व्यक्ति है जो प्रज्ञावान है. जो बुद्धत्व को उपलब्ध है जो जागृत है. कुछ बहुत ज्यादा भेद नहीं है. बुद्धत्व में और बुद्धू में…आंख खोलने की मात्र देरी है. आंख खुल गयी तो तुम प्रज्ञा पुरुष…तुम बुद्धत्व को उपलब्ध और नहीं खुली तो तुम वहीं हो जो हो…हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और कुछ भी तो नहीं…

अहं ब्रह्मास्मि का सही अर्थ क्या है

एक ही द्वार के साथ दो सड़कें जुड़तीं हैं. एक वो जो संसारी… जो दुखी रहता है. हाय हाय करता है. दूसरा वो…बुद्धत्व को उपलब्ध…ज्ञान को उपलब्ध…जो नृत्य करता है. परमात्मा की बनायी सृष्टी का भोग करता है. आनंद और उत्सव से जीवन जीता है और दूसरे को भी जीने देता है. वो जो उद्घोष है ना हिंदू सम्प्रदाय में अहं ब्रह्मास्मि (What is god)…वह स्वंय घटता है यहां पर…उसे रटना नहीं पड़ता..मैंने स्वंय देखा कई आश्रमों में..कई महात्माओं में…कोई सड़कों पर बैठे जप रहे हैं… अहं ब्रह्मास्मि की माला फेर रहे हैं. माला थोड़ी ना फेरनी थी जब पता चल गया कि मैं ही ब्रह्म हूं. तो काहे की माला…माला फेरने से तो भान होता है कि अभी पता नहीं चला. अभी हम जबरन स्वंय को मनवा रहे हैं कि मैं ब्रह्म हूं…हम बात कर रहे थे मुक्ति की. हम बात कर रहे थे मेरे मार्ग की. मैं तुम्हें वहीं लेकर जा रहा हूं. मुक्ति के मार्ग की ओर…मुक्ति शब्द से ही पता चलता है मुक्त…किससे मुक्त….बंधनों से…कौन से बंधन हैं तुम्हारे पास…क्या देह तुम्हारा बंधन है. वो तो हो ही नहीं सकती. क्योंकि वो स्वंय ही छूट जाएगी. उसको क्या छोड‍़ना तुम्हारे बंधन जो तुमने बांधे हैं. विचारधाराओं के…परंपराओं के…पंथों के…धर्मों के…बस यही मैं तुम्हें दिखा रहा हूं.

अंत में केवल इतना ही…चारों ओर फैले परमात्मा को मेरा नमन…तुम सभी जागो…जागते रहो…

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