बैसाखी थोड़े ही चलाती है लंगड़े को?
तुम सोचते हो की कि बैसाखी लंगड़े को चलाती है भूल में हो तुम। लंगड़ा बैसाखी को थामता है इसलिए ही चल पाता है।
आत्मा और परमात्मा में कुछ भी तो भेद नहीं है दोनों एक ही है तुमने अपने कमरे के झरोखे से आकाश को देखा तो वो आत्मा और तुमने बाहर आकर आकाश को देखा तो वो परमात्मा। दोनों में क्या भेद है? नहीं ! आकाश में भेद नहीं है तुम्हारे देखने में भेद है।
तुम्हे आकाश न दिखाई दे तो यह तो नहीं कहा जा सकता कि आकाश नहीं है। उसी प्रकार अगर तुम्हे परमात्मा न दिखाई दे तो ये तो नहीं कहा जा सकता कि परमात्मा नहीं है।
नहीं ! तुम्हारे पास वो आँख नहीं है जो उसे देख सके और ये कहानिया कि आँख भी तुम्हे कोई दूसरा ही दे ये तो उन गुरुओ ने ही रची है जो जो अपनी दूकान चला रहे है। आँख तुम्हे स्वयं अपनी खोलनी पड़ती है। कहानिया बनाने में तुम्हे सभी पंडित पुरोहित बड़े ही चालाक होते है हर वो कृत्य जिससे दूसरे को भरमाया जा सके उस विषय पर वह सभी कहानिया गढ़ देते है।
लकिन आँख वो तो तुम्हे अपनी ही खोलनी होती है। अगर दूसरा ही आंख दे सकता तो बुद्ध को 6 वर्ष क्यों भटकना पड़ता ? महावीर को 12 वर्ष क्यों भटकना पड़ता ? मोहम्मद जीजस नानक को उसे अपनी ही आँख से देखना पड़ा।
नहीं ! आँख तुम्हारी ही तुम्हारे काम आएगी दीपक तुम्हारा ही तुम्हारे काम आएगा।
और तुम दूसरी भूल कंहा कर रहे हो ? तुम भूल कर रहे तो कि देखना तो तुम चाहते हो पूर्ण को , ब्रम्ह को , विराट को , अखंड को , पूर्ण अस्तित्व को और देखना चाहते हो खंडो के द्वारा !
यानि कोई सागर खली करना चाहे वो भी चम्मच के द्वारा ! दुनिया को तबाह करना चाहे वो भी दिवाली के पटाखों के द्वारा !
इस मंदिर में परमात्मा है उस में नहीं है। इस तीर्थ में परमात्मा है उसमे नहीं। यह कृत्य धार्मिक है वह नहीं। ये कर्म है वो अकर्। ये पाप है ये पुण्य।
यंहा क्या किया तुमने ? यंहा तुमने खंड खंड कर दिए विराट के। अब वो विराट तुम्हे कैसे दिखेगा ?
वो तुम्हे तभी दिखेगा जब तुम उसे हर कंही देख सको। फूलो में , बगीचों में , नदी नालो में जंगल में खेतो में। हर कंही। जब वृक्षो के पत्तो के बीच से गुजरती हवा में तुम उसे देख सको तभी तुम उसे देख पाओगे। तुम खंडो में उसे कभी भी न देख सकोगे।
और खंडो में तुम उसे कभी भी न देख सकोगे। आंख तुम्हारी ही चाहिए।
उस परमात्मा के साक्षात्कार में परमात्मा उतना प्रमुख नहीं है जितना तुम्हारी आँख। परमात्मा कंही थोड़े ही छिप गया है कंही खो थोड़े ही गया है वो तो वंही है लकिन तुम्हारी ही आँख में उसे देखने की क्षमता नहीं है। गीता में आया है कि जो जिसको धयायेगा वो उसे ही पायेगा। तुमने इसका तात्पर्य केवल इतना ही मान लिया कि हमने किसी देवता को नहीं ध्याना है। कुछ भी न समझे तुम। तुम फिर खण्डों में ही अटक गए। कोई मूर्ति को धयाता है वो वंहा अटक गया कोई तीर्थो को धयाता है वो वंहा अटक गया। कोई पितरो को धयाता है वो वंहा अटक गया।
मैं एक तांत्रिक को जानता था वो शमशान में जाकर भूतो की पूजा करता था तंत्र मंत्र करता था वो वंही अटक गया। जो नोटों को धयाता है वो वंही अटक गया। कोई भी तो उस परमात्मा तक नहीं पंहुचा जो परमात्मा कण कण में है। किसी को भी अपनी आँख का ध्यान नहीं आया। सभी वो देख रहें है जो उन्हें उनके माँ बाप सीखा गए जो उनके धर्म गुरु सीखा गए या जो उनके शास्त्र सीखा रहें है।
अपनी आँख की किसको परवाह है बस यही चूक कर रहें तो तुम लोग।
तुम सोचते हो दूसरे के सहारे तुम देख लोगे , दूसरे के सहारे तुम चल लोगे। नहीं ! भूल में हो तुम।
तुम सोचते हो बैसाखी लंगड़े को चलाती है ? नहीं ! बैसाखी थोड़े ही लंगड़े को चलाती है ? लंगड़ा बैसाखी को थामता है तब वो चल पाता है। अगर लंगड़ा चलना ही न चाहे तो क्या बैसाखी उसे चला पायेगी?
परमात्मा को देखने के लिए परमात्मा उतना प्रमुख नहीं है जितना उसे देखने वाली आँख।
और एक और राज की बात बताता हूँ सुनो ! तुम सोचते हो जिसको परमात्मा दिख जाता है वो मस्त हो जाता है दीवाना हो जाता है प्रेमी हो जाता है आशिक हो जाता है। लेकिन वास्तव में उल्टा होता है। जो प्रेमी हो जाता है दीवाना हो जाता है आशिक हो जाता है पागल हो जाता है मस्त हो जाता है उसे ही परमात्मा दिखता है।
जैसे तुमने सुना होगा की मनुष्य को धन कुमार्ग पर ले जाता हैं। नहीं ! ऐसा नहीं है जो कुमार्गी होता है उसे अगर धन का सहारा मिल जाये तो वह धन की ओर आकर्षित हो जाता है और कुमार्ग के पथ पर चल पड़ता है। धन उसे आकर्षित करता है ऐसा नहीं है।
जब भी तुम्हारे भीतर प्रेम का उदय होता है तो परमात्मा कण कण में स्वयं ही दृष्टिगोचर होने लगता है।
परमात्मा को देखने में परमात्मा मुख्य नहीं है तुम्हरी परमात्मा को देखने वाली आँख मुख्य है !