एक महात्मा आया बोला कि परमात्मा का दर्शन क्यों नहीं हो रहा है उस विराट का अनुभव क्यों नहीं हो रहा है ?
क्या केवल मंदिर मस्जिद में जाकर ही परमात्मा की भावना कर ही पूरा जीवन बीत जाएगा ? क्या पूरा जीवन इन्हीं
सपनों में बीत जाएगा ? मैंने कहा नहीं मैंने कहा नहीं !
परमात्मा का अनुभव ! वह तो एक क्षण में हो सकता है और तुम्हें कई बार समझाया भी है बताया भी है कि बुद्ध जब
भी आते हैं उनको देखो उनको समझो।
वह जो कहते हैं उसे सुनो। ना की पुरानी धारणाओं को !
तुम आज भी पुरानी धारणाओ पर खड़े होते हो। बुद्ध खड़े होते हैं अनंत ऊंचे आसमान में , ब्रह्मांड में और तुम खड़े
होते हो जमीन में।
खूंटिया गाढ़े ! अपनी अपनी विचारधाराओं की खुटिया। अपनी अपनी परंपराओं की खुटिया। अपने अपने धर्मों की
खुटिया।
जो खुटिया तुमने गाड़ी है बुद्ध केवल उन्हीं खुटियो को तो तुम्हें तोड़ने को बोलते हैं। ताकि तुम भी ऊंचे अनंत
आकाश में उड़ सको , उस सत्य को जान सको जो सत्य बुद्धौ ने जाना है।
लेकिन छोड़ोगे कैसे ? पुरानी खुटियो को तुम। तुम खुद छोड़ना ही नहीं चाहते।
और बुद्ध खूंटी ही तुमसे तोड़ने को कहते है।
बुद्ध खड़े हैं अनंत आकाश में। तुम बैठे हो घर के भीतर।
बुद्ध कहते हैं आकाश विराट है तुम कहते हो आकाश मुझे भी दिख रहा है। वह तो चौकोर है तुम्हारे द्वार की चौखट
की भांति।
पर अंतर देखा दोनों में। दोनों ही तो आकाश को देख रहे हैं।
लेकिन एक जो आकाश को नीचे से खड़ा देख रहा है और दूसरा जो खुटिया तोड़कर चारों तरफ के बंधन मिटा कर ऊपर
खड़ा है उसे जो विराटता दिखती है और जो घर के भीतर एक घेरे में खड़ा है उसे जो आकाश दिख रहा है दोनों में कितना
अंतर है बस इतना ही अंतर है।
जिस दिन तुम भी वह खुटिया तोड़ दोगे अपना घेरा तोड़ दोगे ! वो जो तुमने बनाए हैं धर्मों के , विचार धाराओं के , पंथो
के , संप्रदायों के , तो तुम्हें भी वह विराट अनंत अनंत विराट दिखाई देगा।
मैं तुम्हें एक नया धर्म सिखा रहा हूं ! धर्म कहना भी ठीक नहीं होगा। मैं तुम्हें सत्य के दर्शन कराना चाहता हूं और तुम
हो कि केवल कपड़े बदलने से स्वयं को धार्मिक मान लेते हो और यह कोई आज की बात नहीं है।
हजारों हजारों वर्षों से ऐसा ही तो होता आया है।
कृष्ण के सामने अर्जुन खड़ा था ! कृष्ण कहते हैं युद्ध कर ! अर्जुन कहता है कि मैं भिक्षावृत्ति कर के जीव जीवन यापन
कर लूंगा और वह इस भिक्षावृत्ति को भी तो धार्मिक मान रहा था लेकिन कृष्ण कहते यह धार्मिक होना नहीं है। यह
भागना है। और तुम क्या कर रहे हो ?
तुम जितने भी धार्मिक हो वस्त्र बदले ! तुम सोचते हो तुम धार्मिक हो गए। काम धंधा बंद कर दिया और वस्त्र बदल
लिए।
तुमने सोचा तुम धार्मिक हो गए। भिक्षावृत्ति चालू की , कथा करनी चालू की , धार्मिक वस्त्र धारण किए , धार्मिक
स्वरूप बना लिया और तुम सोचने लगे की तुम धार्मिक हो गए।
अगर धार्मिक होना इतना ही आसान होता तो कृष्ण अर्जुन को ऐसे ही धार्मिक होने देते। लेकिन कृष्ण ने तो कहा !
नहीं भाग मत , भगोड़ा मत बंद , लड़ , संघर्ष कर ।
इसी जीवन में तो बुद्ध आते है। बुद्ध क्या करते हैं ? तुम्हारे इन्हीं भरमों को तो तोड़ते हैं। ताकि तुम मुक्त हो सको
ओर उस विराट का अनुभव कर सको।
ओर अगर तुम्हें भी उस विराट का अनुभव करना है तो तुम्हें भी अपनी सारी खुटिया तोड़नी ही पड़ेंगी ही। फिर तुम्हें
किसी मंदिर , मस्जिद में जाकर मन को समझाना नहीं पड़ेगा।
बुद्ध ! बुद्ध तो तुम्हें यही मुक्त कर देते हैं बंधनों से ! बुद्ध क्या करते हैं ? बुद्ध तो पत्थरों को हटा देते हैं जो तुमने
अपने ऊपर जन्मों-जन्मों से ढो कर रखें है। ताकि पत्थरों के हटने के बाद तुम स्वयं को देख सको और जिसने स्वयं
को देख लिया उसने उस विराट को देख लिया।
उसे उस विराट का अनुभव होगा वही तो प्रकट हुआ है अनंत अनंत रूपों में तुम्हारे सामने।
लेकिन तुम ! तुम तो स्वयं को बंधनों में बांधे हुए हो !
84 का बंधन तुम स्वयं ही तो मानते हो ना ! तुम बड़े और 84 छोटा , नहीं ! यहां कोई छोटा बड़ा नहीं है , यहां कोई
अपना पराया नहीं है , यहां एक ही एक परमात्मा है। तुम ना पापी , ना पुण्य आत्मा , ज्ञानी ना अज्ञानी, ना बुद्ध
अबुद्ध।
एक ही तो है यहां ! पर जिस दिन वह बंधन तोड़ दोगे उसी दिन उस परमात्मा के दर्शन संभव होंगे।