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Jagateraho

LIFE SAGA OF A LUNATIC.

                                                                                                  एक पागल की जीवन गाथा।

जिसने परमात्मा की प्राप्ति के लिए सभी कुछ किया जो जो धर्म गुरुओं ने बताय।   मंदिरों में आरती करना, पूजा करना, तीर्थों में जाना , गंगा स्नान ,  व्रत , दीक्षा , जो रोज रोज बढ़ती गई। रोज की सौ-सौ  माला का जाप होता गया। खाना-पीना छोड़ा।  5 वर्ष का उपवास ,भाति भाति की साधना है। जो जो भी जिस जिस गुरु ने कहा वह वह पूरी तन्मयता से किया लेकिन परमात्मा वह तो नहीं मिला। 

जब उन गुरुओं को भी ना मिला जिन्होंने यह समझाया तो वह कैसे किसी दूसरे को दे पाते हैं। खैर जीवन निकलता गया। ऊपर से तो धार्मिक होने का ढोंग बढ़ता गया और भीतर से यह धारणा भी बढ़ती गई कि भीतर तो अभी तक खाली है। भीतर तो अंधेरा है। आधी से ज्यादा उम्र समाप्त हो गई लेकिन परमात्मा नहीं मिला।

और जब तक यह आग भीतर ना हो तब तक तुम जलोगे कैसे।  और जब तक तुम ना जलो , तुम भस्मीभूत  ना हो। तब तक तुम्हारी मैं कैसे मिटेगी? तुम्हारा अहंकार कैसे समाप्त होगा और बिना मैं के समाप्त किए कहीं तू उतरता है क्या?

इसी तरह समय बीतता गया अनेक गुरु आए और चले गए। कभी कृष्णा  भक्ति की संस्थाओं में जाकर माथा रगड़ा और जब उनके गुरुओं से परमात्मा के विषय में पूछा तो जवाब मिला जाओ। मंदिर के भीतर जाकर देख लो। कलयुग में भगवान मूर्ति के रूप में ही दिखते हैं तो परमात्मा ने उस चोला धारी , डंडा धारी गोपाल स्वामी को उत्तर दिया कि अगर मूर्ति ही परमात्मा है तो मूर्ति को तो मैं खरीद कर घर में रख लूंगा तो क्या मैं कह सकता हूं कि परमात्मा मिल गया। या मैंने परमात्मा को पा लिया या मैंने परमात्मा का दीदार कर लिया।

 उस छोला धारी सन्यासी के पास कोई भी उत्तर नहीं था। उत्तर होता भी कैसे वह भी समझता था कि यह परमात्मा नहीं है लेकिन दुकान भी तो चलानी थी। गद्दी भी तो संभाल नहीं थी। 

फिर परमात्मा के हाथ एक गीता थमा दी गई। यह लो इससे उत्तर खोज लो। इसमें सभी उत्तर मिलेंगे। परमात्मा ने गीता भी पड़ी कई बार पढ़ी। लेकिन पूरी गीता किसने लिखी? उसी के द्वारा व्याख्या की गई और पूरी व्याख्या में एक ही बात पर मुख्य थी कि  इस गीता से पहले वाली जितनी भी गीता आज तक लिखी गई थी, वह गलत है और यही ठीक है।  जैसा किसी ने गीता के ऊपर यथारूप लिखा है। किसी ने वास्तविक रूप लिखा। किसी ने सही लिखा भांति-भांति  की भ्रांतियां लोग स्वयं ही पाले रहते हैं।

 जो गुरु केवल इतना ही कह रहा है कि मैंने जो लिखा वही सत्य है और बाकी सभी का लिखा असत्य है शायद उसे भी अभी तक स्वयं ही सत्य का नहीं पता।  सत्य उसे भी नहीं मिला। इस प्रकार कई  वर्ष बीत गए। माला की गिनती बढ़ने लगी। सिर की चोटी भी बढ़ने लगी। गले की कंठी के चक्र भी बढ़ने लगे। माला की मोटाई भी बढ़ने लगी, लेकिन परमात्मा आसपास भी नहीं था।

वह तो शायद किसी दूर ग्रह पर बैठा था जो शायद ही मरने के बाद भी मिले या कल्पना ही रहे। अगर वह धारणा सत्य है कि कण-कण में परमात्मा है। अगर वह धारणा सत्य है कि जर्रे-जर्रे में खुदा है तो मृत्यु के बाद किसी दूसरे ग्रह पर जाकर मिलता है। यह तो झूठ है। दोनों धारणाएं कैसे सत्य हो सकती हैं। एक धारणा कहती है कि परमात्मा यही है कण-कण में और दूसरी धारणा कहती है कि वो दूर किसी ग्रह पर है।  कोई कहता है, तुम्हारे भीतर है कोई कहता संसार में है।

कोई कहता है, बैकुंठ में है यंहा  नहीं है। एक धारणा कहती है वो गोलोक में है।

परमात्मा को आखिर ज्ञात हो गया कि इन लोगो के पास उनके प्रश्नो के उत्तर नहीं है।

अब परमात्मा ने रुख किया उत्तराखंड की पहाड़ियों का।  वंहा भी कई धर्म गुरु मिले, कई साधु संत मिले , कई गुरु मिले, लेकिन वह भी अलग ही प्रकार के थे। कोई केवल जटाओं को बढ़ाने को ही धार्मिक होना माने बैठा था। कोई केवल तिलक लगाने को धार्मिक होना माने बैठा था। कोई घुंघराले बालों को धार्मिक होना माने बैठा था और कोई लाल कपड़ों को ,तिलक को, कमंडल को ,धार्मिक होना माने बैठा था। सभी वेशभूषा में ही भरमाये हुए थे। कोई नागा होकर शरीर को यातना दे रहा था तथा जड़ बुद्धि हुए बैठा था।

जिसके शरीर को सर्दी गर्मी नहीं लगती जिसे शरीर से दुर्गंध आने का भी भान नहीं होता जिसके हाथों और पैरों की चमड़ी इतनी मोटी हो गई कि उसमें कंकड़ पत्थर के चुभने का भी असर नहीं होता? उसे जड़ बुद्धि नहीं तो और क्या कहा जाए? यानी ऐसे तो वह जानवर जिसकी चमड़ी मोटी है, हाथी भैसा  इत्यादि सभी को धार्मिक मान लेना चाहिए क्या?

नही।  ऐसा धार्मिक भी परमात्मा को नहीं बनना था। किसी ने कहा, भोजन छोड़ने से परमात्मा मिलता है तो वह भी 5 वर्ष करके देख लिया। शरीर हल्का हो गया और भोजन ना करने से रोग मुक्त भी हो गया था। फुर्तीला भी हो गया था लेकिन परमात्मा का कहीं भी अता-पता नहीं था। हां, वहां ऐसे ऐसे महात्मा भी मिले जो अहँब्रम्हास्मि का जाप कर रहे थे। पूछा तो ज्ञात हुआ कि जब वह 10 -12 वर्ष  के थे तब से कर रहे हैं। 12 वर्ष से एक व्यक्ति जप कर रहा है। आज 80 वर्ष का हो गया है। एक ही शब्द अहँब्रम्हास्मि कि मैं ब्रम्ह  हूं।

70 वर्ष होने वाले हैं। अभी तक धर्म का अनुभव नहीं हुआ। कैसा साधन है यह 70 वर्ष तक किया लेकिन अभी तक धर्म नहीं मिला। अभी तक अनुभव नहीं हुआ और अगर हो ही गया तो अब क्यों जपे जा रहे हो? यानी अभी भी भ्रम है। अभी भी भ्रम में ही जीवन चले जा रहे हैं। अभी भी अंधेरे में ही दरवाजा टटोले जा रहे हैं। मतलब यह साधना भी ठीक नहीं है। जिस किसी बुद्ध ने यह उद्घोष किया होगा। अहम् ब्रह्मास्मि तो वह घोष उसके भीतर से निकला होगा क्योंकि उसने अनुभव किया होगा। लेकिन? जड़मति। वह कैसे समझेगा? जड़मति तो केवल शब्द रटेगा ।

कोई गंगा की आरती कर रहा था, कोई योग कर रहा था। कोई आंखें बंद कर ध्यान के भ्रम में बैठा था लेकिन कोई भी तो उस परमात्मा को देख नहीं पा रहे था । समझा भी नहीं पा रहा था कि वह कैसे दिखेगा? कोई दसोहम की माला फेर रहा था यानी हम परमात्मा के दास हैं। मान रहा था कि दास होना ही हमारा  धर्म है। और यही मान रहा था कि परमात्मा मृत्यु पर्यंत किसी अन्य ग्रह पर बैठा मिलेगा।

सभी तो कहते हैं कि वह दयालु है, अकारण ही कृपा करता है।  अन्य धर्म वाले भी यही कहते हैं बिस्मिल्लाह ए रहमान ए रहीम तो कैसी कृपा है जो सामने आकर भी नहीं करता। कुछ समझ नहीं आता कहीं तो कुछ भेद है। कहीं तो ऐसी भाषा है जिसे मनुष्य समझ नहीं पा रहा है।

जिस कोडिंग को डिकोडिंग नहीं किया जा पा रहा है। कुछ ना कुछ भाषा में दोष है।

और सत्य तो ये है कि भाषा में भी दोष नहीं है, समझने में दोष है। परमात्मा यह तो जान चुके थे कि कुछ ऐसा है जो नहीं समझा जा पा रहा है। कोई शिवोहम की माला फेर रहा था लेकिन शिव नहीं बन पाया। कोई अहम् ब्रह्मास्मि की माला फेर रहा था, लेकिन अभी तक भी ब्रम्ह का अनुभव नहीं कर पाया था। कोई सोअहं की माला फेर रहा था लेकिन उससे भी कुछ नहीं हुआ। राम राम, कृष्ण कृष्ण ,शिव शिव सभी मालाएं व्यर्थ होती गई थी।

साले कारतूस खाली निकले। जिन से मैं को मारा जा सके, ऐसा एक भी जिंदा कारतूस नहीं निकला। सारे हथियार चला लिए। आखिर परमात्मा जान चुके थे कि यह मार्ग है भी नहीं। अहम् को समाप्त करने का यह तो वैसा ही मार्ग है

जैसा व्यवहार हम पशुओं के साथ करते हैं। ताड़ना देना।  तो जड़मति ने स्वयं को ताड़ना देना सताना आरंभ कर दिया। परमात्मा ! उनको तो यह हिंसा का मार्ग लगा भांति भांति के उपाय देखे, लेकिन कोई भी महात्मा ऐसा नहीं मिला जिसकी आंखों में वह परमात्मा ताकता झांकता दिखे।  कुछ जड़मति बने रहे, कुछ धार्मिक चोले की आड़ में अपराधी थे

जो अपना वेशभूषा बदल कर अपना अपराध छुपाते रहे, वह भी वही थे। कुछ स्वयं का पेट पालने के लिए ही धार्मिक बने और कुछ तो ऐसे मिले जिनके पास कुछ शमशान की क्रियाएं थी। उन्हीं से लोगों को सम्मोहित कर उनका धन लूटने के लिए ही महात्मा का वेष धरे बैठे थे।

एक बात बिल्कुल सामान थी सभी में कि धार्मिक होने से ज्यादा महत्व सभी इस बात को दे रहे थे कि धार्मिक दिखा कैसे जाए? कुछ लाल कपड़े पहनकर ,मालाएं पहनकर ,तिलक लगाकर ,जनेऊ ,चोटी धारण कर स्वयं को धार्मिक मानकर खुश हो रहे थे। कुछ सफेद टोपी पहनकर हरा गमछा लेकर स्वयं को धार्मिक माने बैठे थे। कोई क्रॉस धारण किए और कुछ पगड़ी पहने हुए स्वयं को धार्मिक माने बैढा था ।

पूरी दुनिया धार्मिक होना चाहती है लेकिन सभी एक बात भूल जाते हैं। कि वह परमात्मा कहां है, वह खुदा कहां है जिसकी बात कृष्ण ,बुद्ध ,महावीर ,मोहम्मद ,जीसस ,नानक ,कबीर करते थे।

वह कहां है जो इन बुद्धौ  की आंखों में झांकता दीखता था, वह दीवानापन कहां है, वह पागलपन कहां है जो इन बुद्धौ  में था? भटकते भटकते एक और तांत्रिक भी मिला। अघोरी मिला। उसने भी कई मंत्र जप दिए और मंत्र जप करवाए । उसने कहा कि ध्यान में  मुर्दे की छाती पर बैठकर यह मंत्र जप करो और परमात्मने ने वो भी किया । उसने कहा, ध्यान में मुर्दे का मांस भी खाना पड़ेगा। मदिरा भी ध्यान में पीनी पड़ेगी।  सभी जगह से हारा हुआ क्या ना करता यह भी किया।

सभी कुछ किया ध्यान में जो जो कहा गया और आखिर अंत में पता चला कि वह मूढ़ तांत्रिक आखिर में  किसी भूत की सिद्धि करवाना चाहता था। यह पहली घटना थी जीवन की जब परमात्मा ने जीवन में भूतो और  और प्रेतों का साक्षात्कार किया तथा सौ-सौ  फुट के कई व्यक्ति भी देखें। फिर उस तांत्रिक का सारा राज खुल चुका था कि उसका धर्म से कोई भी लेना देना नहीं है।

उसका परमात्मा से कोई भी लेना देना नहीं था। वह तो एक बहुत ही छोटा सा घटिया व्यक्ति था जो भूत-प्रेत की सिद्धि कर  लोगों को भ्रमित कर उनका धन लूटता  था और अपना तथा अपनी बीवी का और अपनी बेटी का पेट पालता था। बाद में पता चला उसका गुरु भी यही करता था और दिखावा धार्मिक होने का करता था जैसा सभी लोग कर रहे हैं।

अब तक जितने भी व्यक्ति मिले थे, सभी में एक ही बात मुख्य थी कि कोई भी स्वयं अपने लिए रोटी नहीं कमाना चाहता। वह सभी इस वेशभूषा को केवल इसलिए पहने हुए थे ताकि लोग धार्मिक समझे और दान चढ़ावा आये । और अगर ध्यान से देखोगे तो तुम भी पाओगे की सभी धर्मों के धर्मगुरु केवल वेशभूषा से ही तो धार्मिक बने हुए हैं।  उनका मुख्य लक्ष्य केवल अपने चरण पुजवाना तथा धार्मिक कलवाना ही तो है ताकि धन मिले और घर बार बढ़ता रहे भंडार भरते रहे ।

लेकिन जिसे वास्तव में ही परमात्मा की प्यास लगी हो, वह कहीं रुकता है। अभी तक भागते भागते शायद 30 वर्ष हो चुके थे। आखिर में एक और  निराशा हाथ लगी। कोई ऐसा ना मिला जो यह दावा करता कि मेरे कहे अनुसार केवल 1 वर्ष चलो, मैं परमात्मा दिखा सकता हूं। आखिर परमात्मा जो  अब तक बहुत कुछ देख चुके थे। बहुत उपाय बहुत मालाएं भी फैल चुके थे। लेकिन उस परमात्मा का ,उस खुदा का कहीं भी पता ठिकाना नहीं था जिसकी प्यास लगी थी।

तो सोचा कि शायद सारे ही धर्म शास्त्र झूठ बोलते हैं सारे ही बुद्ध झूठ ही बोलते हैं। शायद परमात्मा ,ईश्वर, अल्लाह गॉड ,खुदा ऐसा कोई व्यक्ति ही ना हो। ऐसी कोई वस्तु को कल्पित नाम ही गढ़ा गया हो। हो सकता है पूरी दुनिया ही भ्रम में हो और उसे ढूंढ रही हो जो है ही नहीं।

परमात्मा भी अब शांति से बैठ गए। अब कोई दौड़ ही नहीं बची थी जीवन में अब कोई मंजिल नहीं बची थी , अब कोई खोज ही नहीं बची थी। जीवन में अब कहीं जाना नहीं था। ना स्वर्ग पाना था ,ना मोक्ष, ना मुक्ति ,ना बैकुंठ ,ना किसी को पाना था, ना ईश्वर ,ना परमात्मा ,ना खुदा। परमात्मा के लिए सभी मिट गए थे। बस एक ही काम था। रात को लंबी चादर तान कर सोना दिन में खाना, पीना और पार्कों में जाकर विश्राम करना अपना अपना काम धंधा करना और कोई दौड़ नहीं बची थी। कोई अभिलाषा भी नहीं थी। कोई इच्छा भी नहीं थी।

अंत में परमात्मा ने सारी मालाये फेंक दी। कंठी ,जनेऊ तोड़ कर फेंक दिए , चोटी कटवा दी । तिलक वगैरह छोड़ दिए गए।  कोई ऐसा निशान ना बचा जिससे यह धारणा घर करें कि मैं धार्मिक हूं। जब परमात्मा का साक्षात्कार ही नहीं हुआ तो कैसा धार्मिक? जब ईश्वर ही नहीं मिला तो कैसा धार्मिक?

अब जीवन में कुछ भी पाना शेष ना था , कहीं पहुंचना भी शेष ना था। कोई उपाय कोई साधना कुछ भी ना थी। लेकिन ऐसी स्थिति भी ज्यादा दिन ना चली। आखिर तो कुछ और ही होने वाला था। शायद यही उसके होने की आहट थी  ,शायद यही मौत की दस्तक थी जिसने सभी कुछ मिटाना था। शायद यही उस शाश्वत जीवन की शुरुआत थी  जिससे  एक अनहोनी घटना घटी।  पार्को में बैठा हुआ अब कौआ जो पहले कभी शायद दिखता भी ना था। अब गीत गाता दिखाई देने लगा।

पत्ते जो  पेड़ों पर कभी ना दीखते थे आज वही पत्ते पेड़ों पर नाचते हुए दिखाई देने लगे थे पहले पेड़ो के ऊपर लगे पत्ते भी अच्छे नहीं लगते थे और आज  पेड़ों के नीचे पड़े हुए सूखे पत्ते भी नृत्य करते नजर आने लगे। पहले जहां शायद फूल भी नजर नहीं आते थे, उनसे भी कुछ ना दिखता था। आज वंही पर कांटे भी सुंदर दिखने लगे हवा के झोंकों से नाचते प्रतीत होने लगे। कबूतरों का नित्य दिखने लगा। चिड़ियों की मस्ती दिखने लगी। छोटी-छोटी तितलियां भोरे उसी के आनंद के सागर में नृत्य करती प्रतीत होने लगी।

सूर्य चांद तारे सभी मुस्कुराते दिखने लगे। फिर तो छोटे छोटे कंकरो पर पत्थरों पर प्रकाश भी नाचता नजर आने लगा।  जो प्रकाश आज से पहले भी था जिसके कारण ही हम देख रहे थे वह प्रकाश भी नजर आज तक नहीं आया था। आज वह भी दिखने लगा। आज धूल के कणों के ऊपर प्रकाश नाचता नजर आने लगा। आज अनुभव हुआ कि एक ही सूते में यह पूरी प्रकृति यह पूरी श्रिष्टि हम सभी गुथे हुए हैं।

आज ज्ञात हुआ कि परमात्मा की बनाई हुई सृष्टि कितनी सुंदर है, उसमें कौवा भी उतना ही सुंदर है जितनी कोयल। उसमें कुत्ता भी उतना सुंदर है जितनी गाय। अब सृष्टि कितनी सुंदर हो गई थी। और प्रकृति भी और परमात्मा भी अब सभी धारणाये खो गई थी । अब ना तो यह संसार ही पहले वाला संसार बचा था। और ना ही देखने वाला पहले वाला देखने वाला बचा था। अब शायद वह सूक्त शाश्वत मूर्तिमान होकर खड़ा हो गया कि कण-कण में वह परमात्मा विराजमान है।

जर्रे जर्रे  को वही आलोकित कर रहे है, आज पूरी दुनिया नहीं हो गई थी।  आज दुनिया को देखने वाला भी नया हो गया था। एक नई ही दृष्टि मिल गई थी और यह कोई भी स्वपन नहीं था। यह तो खुली आंखों से हो रहा था। ऐसा अनेकों दिन रहा धीरे-धीरे सृष्टि ही ऐसी हो गई। फिर कुछ भी ना बदला। वहां सभी कुछ नया हो गया ,वहां परमात्मा भी नया हो गया हो। तब जाकर पता लगा की मैं जिस परमात्मा ढूंढे जा रहा था वो ये ही तो है  वही तो महका  रहा है। सृष्टि को।  वही तो नाचता है सृष्टि को। अब वह साक्षात देखने लगा था।

खुली आंखों से देखने लगा था। अब तो उसका भी दीदार होने लगा और उसके साथ-साथ स्वयं के जीवन का भी दीदार होने लगा। और यही सोच है यही सकता है कि जिस दिन तुम उसे देख पाते हो, उसी दिन स्वयं को भी देखा जा सकता है और जिस दिन स्वयं को देख पाते हो उसी दिन तुम उसे भी देख सकते हो। इतना सब अनुभव होने के बाद परमात्मा ने यही बीड़ा उठाया कि अब जो आनंद अब जो मस्ती उन्हें मिली है, अब जो पागलपन  उन्हें मिला है वह संसार को दिया जाए।  जो उसके प्रेम की शराब परमात्मा ने पी है वो उन सभी को पिलाई जाये जो उसको  पीना चाहते हैं।

उन्हें भी दो दो घुट पिलाई  जाए और ज्ञात हुआ कि यही तो बुद्धत्व है। यही परमात्मा का अवतरण है। परमात्मा उतरता है इसी धारा पर।  पूरा पूरा उतरता है बस तुम हटो बीच में से। मैं का मिटना और उसका पैदा होना एक ही साथ घटता है। परमात्मा का अवतार नहीं होता। परमात्मा का अवतरण होता है बुद्धौ में।

तभी नाम पड़ा परमात्मा।  क्योंकि यंहा सभी तो परमात्मा है। परमात्मा को ज्ञात हो गया। और तुम्हें अभी तक ज्ञात नहीं है। हो तो तुम भी परमात्मा।  अगर तुम्हें भी धर्म का पथ जानना है तो मिटो , हटो ,सरको बीच में से।  और जीवन का आनंद लो। उसकी बनाई हुई सृष्टि के उत्सव में शामिल हो जाओ

 

Who did everything for the attainment of the divine, which the religious gurus told. Performing aarti in temples, worshiping, going to pilgrimages, bathing the Ganges, fasting, initiation, which increased every day. Chanting hundred of garlands daily. Stopped eating and drinking. Fasting of 5 years is the practice of regular worship. Whatever the guru said, he did it wholeheartedly, but God did not get it.

When even those gurus who did not explain it, how can they give it to someone else? Well, life went on. From above, the pretense of being religious increased and from within it also increased the perception that the inner is still empty. It is dark inside. More than half the age is over but God is not found.

And how will you burn until this fire is inside. And unless you burn, you are not consumed. Till then how will I erase you? How will your ego end and do you get down without me?

Similarly, as time went on, many gurus came and went. Ever went to the institutions of Krishna devotion and rubbed his head and when asked about his gurus about the divine, get an answer. Go inside the temple and see. In Kali Yuga, God is seen as an idol, then God replied to that Gola Swami, that Chola stripe, Danda Dari, that if the idol is divine then I will buy the idol and keep it in the house, then can I say that God can be found Gone. Or I have attained the divine or I have seen the divine.

That Chhola Dhari Sannyasi had no answer. Even if the answer was there, he also understood that it is not divine but the shop also had to be run. The cushion was not even handled.

Then a Gita was handed over to the divine. Take this and find an answer from it. It will get all the answers. God also read the Gita many times. But who wrote the entire Gita? Interpreted by him and in the entire interpretation, the main thing on one thing was that all the Gita written before this Gita till date is wrong and that is right. As someone has written above the Gita as it is. Someone wrote the actual form. Somebody wrote correctly, people keep misconceptions all the time.

The guru who is only saying that what I wrote is true and all the others are untrue, perhaps even he himself does not know the truth yet. He did not even get the truth. Thus many years passed. The garland count started increasing. The top of the head also started growing. The neck girdle also started growing. The thickness of the garland also started increasing, but the divine was not even around.

He was probably sitting on a distant planet, which could hardly be met or imagined even after he died. If that assumption is true that every particle has a divine being. If that belief is true that God is inscribed in the jar, then after death, you go to another planet. This is a lie How can both assumptions be true. One belief says that this is God in every particle and another belief says that he is on a distant planet. Some say it is within you, some say it is in the world.

Some say, it is not there in Baikuntha. One belief says that it is in Goloka.

God finally came to know that these people do not have answers to their questions.

Now God has turned to the hills of Uttarakhand. There also met many religious gurus, met many saints, met many gurus, but that too was of a different type. Someone was seen as being religious only to increase the Jatas. Someone was just considered religious to apply tilak. Some were sitting with curly hair as being religious and some as red clothes, tilak, kamandal, as religious. All were enamored in costumes. Somebody was torturing the body as a Naga and was sitting at the root.

Whose body does not feel cold heat, which is not even aware of bad smell from the body, the skin of hands and feet has become so thick that there is no effect of peeling stone of pebbles in it? What else can he be called if he does not have root intelligence? That is, such an animal whose skin is thick, elephant buffalo etc. should all be considered religious?

no. God did not have to be so religious too. Somebody said, if one gets divine by giving up food, then he also tried it after 5 years. The body became light and by not taking food, the disease was also free. He had become nimble but God had no idea anywhere. Yes, there were also such Mahatmas who were reciting Ahrambrahmasmi. When asked, it was known that he has been doing it since he was 10 -12 years old. A person has been chanting for 12 years. Today he turns 80. The same word ehmbrahmasmi that I am Brahma.

Will be 70 years old. Religion has not been experienced yet. What kind of means is this done for 70 years but religion has not been found yet. Not experienced yet and if it is done then why are you being chanted? That is, there is still confusion. Still life is going on in confusion. The doors are still being searched in the dark. Meaning even this practice is not good. Any Buddha who made this announcement. Ah Brahmasmi, that ghoul must have come from within him because he must have experienced it. but? Inertia How will he understand? At the root, only words will be written.

Some were doing Ganga Aarti, some were doing yoga. Some were sitting in the illusion of meditation with their eyes closed, but no one was able to see the divine. Could not even understand how he would look? Someone was turning the rosary of Dosoham, that is, we are slaves of God. It was believed that being a slave is our religion. And it was believed that God would be sitting on another planet till death.

Everyone says that he is kind, only he is merciful. People of other religions also say the same, what kind of blessing is Bismillah e Rahman e Rahim, which does not come forward. I do not understand anything, there is some difference. Somewhere there is a language which human cannot understand.

Coding that cannot be decoded. There is a defect in some language.

And the truth is that even in language, there is fault, there is defect in understanding. God had come to know that there is something which cannot be understood. Someone was turning the garland of Shivaham but Shiva could not become it. Some ego was turning the rosary of Brahmasmi, but still could not experience Brahma. Some were turning the rosary of Sohan but nothing happened to them. Rama Rama, Krishna Krishna, Shiva Shiva, all the garlands went in vain.

The cartridges left empty. No such live cartridge came out from which I could be killed. Wielded all weapons. After all, God knew that this is not the way. This is the way to end ego

Like we treat animals. To chastise So Jadmati started torturing himself. Divine ! He saw the way of this violence, looked at all the remedies, but no Mahatma could find such a person who could see the divine staring in his eyes. Some remained inert, some were criminals under the cover of religious robes

Those who changed their costumes to hide their crime were also the same. Some became religious only to feed themselves and some found those who had some cremation activities. To seduce people from them, they were sitting in the guise of Mahatma.

One thing was absolutely the same that everyone was giving more importance than being religious, how to show religious? Wearing some red clothes, wearing garlands, applying tilak, janeu, wearing a peak, were happy to consider themselves religious. Some wore white hats and considered themselves religious with a green pot. Wearing a cross and wearing some turban, he considered himself religious.

The whole world wants to be religious but all forget one thing. Where is that God, where is the God whom Krishna, Buddha, Mahavira, Mohammed, Jesus, Nanak, Kabir used to talk about.

Where is the one who looked in the eyes of these fools, where is that madness, where is the madness that was in these fools? Another tantric wandering was also found. Aghori was found. He too chanted many mantras and got them chanting. He said that in meditation, sit on the chest of the dead and chant this mantra and God did that too. He said, he also has to eat corpse meat in meditation. Alcohol will also have to be drunk in meditation. He did what was lost from everywhere.

Everyone did what was said in meditation and finally it was found out that the foolish tantric wanted to get the past perfected. This was the first event of life when God interviewed ghosts and other phantoms in life and also saw many hundred-hundred feet person. Then the secret of that tantrik was revealed that he has nothing to do with religion.

He had nothing to do with God. He was a very small person who, after perfecting the ghosts, used to confuse people and loot their wealth and feed himself and his wife and his daughter. Later it was found out that his guru used to do the same and pretend to be religious as everyone is doing.

All the people who have met till now, one thing was the main thing that no one wants to earn bread for themselves. All of them were wearing this costume only so that people would be considered religious and offer donations. And if you look carefully, you will also find that the religious leaders of all religions remain religious only through costumes. Their main goal is only to get their feet Pujwana and religious Kalwana so that the money is available and the houses keep increasing.

But the one who is really thirsty for God, stops somewhere. It was probably 30 years running away. Eventually another disappointment took place. No one was found who claimed that according to my saying, let me go only for 1 year, I can show God. After all, the God who had seen so far. Many garlands had also spread many measures. But there was no trace of that God, that God, who was thirsty.

So thought that maybe all the scriptures lie, all the Buddha only lies. Perhaps God, God, Allah God, there is no such person. Any such thing is coined by a fictitious name. It is possible that the whole world is in confusion and looking for what is not there.

God also now sat in peace. Now there was no race left, no floor was left in life, now there was no search left. There was no going anywhere in life. Neither heaven was to be found, nor salvation, nor liberation, nor Baikuntha, nor anyone to be found, nor God, nor God, nor God. All were destroyed for the divine. There was only one thing. Sleeping in long sheets at night, eating, drinking and resting in the parks, doing their own business and there was no race left. There was also no desire. There was no wish either.

Finally God threw all the garlands. Kanthi, broke Janeu and threw it, cut the braid. Tilak, etc. were left. There is no trace left that will give the impression that I am religious. When God is not even interviewed, then how religious? How religious when God is not found?

Now there was nothing left to get in life, there was no left to reach anywhere. There was no spiritual practice, no solution. But such situation also did not last long. After all, something else was going to happen. Perhaps it was the call of his being, perhaps it was the knock of death that erased everything. Perhaps it was the beginning of that eternal life that led to an untoward event. The crow now sitting in the parks may not have been seen before. Now he started singing the song.

The leaves which were never seen on the trees, today the same leaves were seen dancing on the trees, at first the leaves on the trees did not look good and today the dry leaves lying under the trees also started dancing. Previously, where even flowers could not be seen, nothing could be seen from them. Today, thorns also started looking beautiful and started dancing with the gusts of wind. The pigeons started showing up daily. Hummingbird began to appear. Small butterflies seemed to dance in the ocean of bliss.

The sun and moon stars all started smiling. Then, on small stones, light on the stones also started dancing. The light which was there even before today, due to which we were seeing, that light had not been seen till date. Today that too started appearing. Today, light danced over dust particles. I felt today that all of us have got this whole nature in one thread.

Today it is known how beautiful the creation of God is, the crow is as beautiful as the cuckoo. The dog in it is as beautiful as the cow. Now the creation had become so beautiful. And all the conceptions of nature and God were also lost. Now neither this world nor the previous world was left. And neither was the former to see. Now perhaps that sukta stands in the form of eternal idol that he is seated in every particle.

Jarere is illuminating the same, today the whole world was not done. Today the world watcher was also new. A new vision was found and it was not any dream. This was happening with open eyes. It has been so many days, slowly the world has become like this. Then nothing changed. Everything is new there, God has also become new there. Then I came to know that the divine I was looking for is the one who is smelling. To the world. He only dances the universe. Now he started seeing the interview.

Began to see with open eyes. Now he too began to be seen and along with it his own life also started to be seen. And this is the thinking that can be seen on the same day you can see it, and on the same day you can see yourself, you can see it on the same day. After experiencing all this, God pledged to take the pleasure that the fun he has now, the madness he has received, should be given to the world. The God who has drunk the wine of his love should drink it to all those who want to drink it.

They too should be suffocated and come to know that this is intelligence. This is the incarnation of God. God descends on this stream. Completely descends from the center. The disappearance and birth of me happens simultaneously. There is no incarnation of God. God comes to the Buddha.

Only then was the name God. Because everyone here is divine. God became known. And you don’t know yet. You are also divine. If you also want to know the path of religion, then erase, move, sarco from the middle. And enjoy life. Join the celebration of his created creation.

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